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15-03-2024

महिला सशक्तिकरण - समाज ने कितना अपनाया

महिला सशक्तिकरण - समाज ने कितना अपनाया

                           8 मार्च अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस होता  है,21 वीं सदी में जहाँ हम महिला सशक्तिकरण की बात करते हैं। हम नारा लगाते हैं, 21 वीं सदी की नारी. सारे पुरुषों पर भारी | परन्तु क्या असल में हमारे समाज द्वारा उस तथ्य को स्वीकार किया गया है, अपितु समाज की व्याख्या यहाँ सिर्फ पुरुषों के बहुमत वाले समाज से न होकर महिलाओं की भागीदारी वाले समाज से है। वर्तमान में ऐसा नहीं है, कि महिलाओं' की सदियों से मुक्ति नहीं मिली है। किन्तु क्या सही मायनों में जो वैचारिक स्वतंत्रता स्त्री या एक महिला को मिलनी चाहिए क्या वह मिलती है मैने कहिं पढा था कि जब एक पुरुष पढ़ता है, तो बह उसका परिवार बहता है, उन्नति करता है, किन्तु जब एक महिला पढती है, तो उसकी तीन  पीढ़ियां उन्नति करती हैं। अब प्रश्न यह उठता है, कि यदि यह मात्र पुस्तकीय ज्ञान न होकर सत्य है, तो स्त्री जाति के प्रति समाज के रवैयो को हम आज तक क्यों नहीं बदल सके। जहाँ पारिवारिक घरेलू उत्तरदायित्वों का बोझ एक स्त्री वर ही अधिक डाला जाता है। यह मात्र एक धारणा नहीं है, शायद आप सभी ने कभी न कभी अपने आस-पास इस तरह के कुछ अनुभव किये होगे, जैसे यदि किसी परिवार में कभी कोई धार्मिक आयोजन हो या कभी रिश्तेदारों' मेहमानों का आगमन होना हो तो सबसे पहले घर की बेटियों से या बहुओं को सूचना दी जाती है, कि वे अपने कार्यालयों से छुट्टी लें या समय को समायोजित करें। जबकि बेटों को इसके लिए वाध्य नहीं किया जाता । पुरुषों की व्यावसायिक उन्नति को अधिक तथा स्त्रियों की व्यावसायिक उन्नति को कम महत्व क्यों दिया जाता है। हमारे द्वारा सहर्ष स्वीकृत किया जाता है, कि महिला घर से बाहर काम करने जा रही है, तो वह मात्र अपने शौक के लिए काम कर रही हैं, जबकि सत्य यह है, कि महिलाएँ परिवार की आर्थिक जरूरतों की पूर्ती में भी सहयोग कर रही है। किन्तु परिवार द्वारा स्त्री की उन्नति या उन्नति की आकांक्षाओं को स्वीकार किया भी जाए तो वह स्थान दूसरा ही होता है। क्या यह महिलायों के साथ अन्याय नहीं है, एक ओर हम अपने घर की महिलाओं को यदि बाहर कार्य करने देने की स्वतंत्रता देकर समाज में अपने आप को उच्च वैचारिक स्तर वाले प्रदर्शित करते हैं। किन्तु वहीं दूसरी ओर जन स्त्री को बराबर का दर्जा देने की बात आती है, तो हम उससे ही उन अवसरों को परिवार के लिए त्यागने की आशा करते हैं। एक उदा: आपके सामने और प्रस्तुत करती हूँ। यह सत्य है, कि सामाजिक प्राणी होने के नाते हम सभी को समाज की मान्यताओं और सिद्धांतो को मानना है। परन्तु क्या यह आवश्यक है, कि हम एक बेटी को सदैव ही इस दृष्टि से व्यवहार सिखाएँ कि, उसे एक दिन दूसरे घर जाना है वर्तमान में हम देख रहे हैं। कि बेटियों ने आज आर्थिक रूप से स्वतंत्रता प्राप्त  कर ली है, आजकल वे घर की आर्थिक जिम्मेदारियों में बरावर की भागीदारी होती है। तो जब हम बेटियों को इस योग्य बना रहे है. कि वे अपने घर की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति में बराबर की भागीदार बनें। तो हम बेटों को शुरुवात से ही  ऐसा व्यवहार क्यों नहीं सिखाते जिससे वे अपनी भावी जीवन संगिनी के साथ वैसा ही समायोजित व्यवहार करे जैसे कि हम बेटियों से आशा करते हैं। इस लेख को लिखने का उद्‌देश्य समाज में पुरुषों के स्थान था उनके अस्तित्व को अस्वीकार करना नहीं है उध्देश्य मात्र इस ओर ध्यान आकर्षित करना है, कि क्या महिला सशक्तिकरण के विचार को पूर्णतः आत्मसात्  कर समाज की सोच में परिवर्तित कर पाए हैं? ………………………क्या आप कर पाए हैं ?